(ट्रैक सिटी)/ वर्षों पहले गाँव के एक कोने में बसा एक छोटा सा घर था। घर के बीचों-बीच एक आँगन था, जहाँ तुलसी का चौरा हर सुबह धूप और जल से पूजित होता था। आँगन में सुबह की किरणें जब गिरतीं, तो पूरे घर में एक अद्भुत ऊर्जा का संचार होता। बच्चे वहीं खेलते, बूढ़े दादा-दादी अपनी कहानियों के किस्से सुनाते, और रात में चाँदनी आँगन को रौशन कर देती।
वहीं आँगन में सुनीता अपनी दादी के साथ बैठा करती थी। दादी उसे आँगन की महत्ता समझाते हुए कहतीं, “बिटिया, आँगन सिर्फ जगह नहीं, यह हमारे परिवार की आत्मा है। यहाँ तुलसी चौरा का होना हमारे घर के लिए आशीर्वाद है। जब तक आँगन है, तब तक परिवार की जड़ें मजबूत रहेंगी।”
समय बीतता गया, और सुनीता ने शहर में पढ़ाई पूरी की। उच्च शिक्षा और बेहतर नौकरी की तलाश में उसे शहर जाना पड़ा। शहर में उसका नया घर एक रो हाउस था, जिसमें आँगन का नामोनिशान नहीं था। उसके घर पर सिर्फ एक छोटा सा पोर्च था, जहाँ गाड़ी पार्क होती थी। जीवन की भागदौड़ में सुनीता के मन में कभी-कभी गाँव का आँगन और तुलसी चौरा याद आता, परंतु अब वो केवल यादें बन चुकी थीं।
एक दिन सुनीता की छोटी बेटी, मीरा, उससे पूछने लगी, “माँ, आपने दादी से आँगन के बारे में बताया था, वो क्या होता है?” सुनीता के मन में हल्की सी टीस उठी। उसने मीरा को गाँव का आँगन और वहाँ के सुखद पलों के बारे में बताया। मीरा आश्चर्यचकित होकर सुन रही थी, जैसे वह किसी नई दुनिया के बारे में जान रही हो।
कुछ समय बाद सुनीता का गाँव जाने का मौका आया। वह अपनी बेटी को लेकर गाँव गई। घर के आँगन में कदम रखते ही उसे वही पुरानी सुकून भरी हवा महसूस हुई। मीरा ने पहली बार आँगन देखा और उसे छूते ही उसकी आँखों में चमक आ गई। उसने उत्सुकता से पूछा, “माँ, हम अपने शहर वाले घर में भी आँगन क्यों नहीं बना सकते?”
सुनीता के मन में विचार उठने लगे। क्या सचमुच हम आधुनिकता की दौड़ में कुछ महत्वपूर्ण चीजें खोते जा रहे हैं? आँगन सिर्फ एक स्थान नहीं था, वह परिवार का संगम था, जहाँ रिश्तों की मिठास पनपती थी, जहाँ हर त्योहार की रौनक और हर दुःख की शांति मिलती थी।
शहर लौटने के बाद, सुनीता ने अपने छोटे से पोर्च को आँगन का रूप देने की ठानी। वहाँ तुलसी का पौधा लगाया, और धीरे-धीरे उस जगह को ऐसा बना दिया कि वहाँ बैठकर परिवार के सदस्य आपस में बात कर सकें, कुछ पल शांति और अपनापन महसूस कर सकें।
मीरा जब उस नए “आँगन” में खेलती, तो सुनीता को अपनी दादी की बातें याद आतीं। वह समझ चुकी थी कि भले ही शहर में बड़े आँगन न हों, पर आँगन की भावना को कभी खोने नहीं देना चाहिए। यह केवल एक शारीरिक स्थान नहीं, बल्कि परिवार और संस्कृति को जोड़ने का माध्यम है।
आँगन का रूप बदल सकता है, पर उसकी आत्मा हर घर में जीवित रहनी चाहिए—यही सुनीता ने अपनी आने वाली पीढ़ी को सिखाया।