बचपन की स्मृतियाँ कभी-कभी यूँ लौट आती हैं जैसे हवा का कोई झोंका अचानक मन को छू जाए। मुझे आज भी याद है, जब होश संभाला था, तब गाँव की हर सुबह किसी उत्सव से कम नहीं होती थी। चारों ओर हरियाली, खेतों में लहलहाती फसलें, खुले मैदान पर खेलते बच्चे, और घर की मुंडेर पर चहकती चिड़ियाँ- वो दिन आज किसी सपने जैसे लगते हैं।
हमारा घर खपरैल की छत वाला था। बड़ा-सा आँगन, जिसमें नीम, अमरूद और तुलसी के पौधे थे। बरसात के दिनों में मिट्टी की सौंधी खुशबू घर के हर कोने में समा जाती थी। रसोई के पीछे छोटी सी बाड़ी थी, जहाँ माँ सब्ज़ियाँ उगातीं—भिंडी, टमाटर, बैंगन, धनिया। घर में ही एक पुराना कुआँ था(आज भी है), जिसका मीठा पानी पूरे परिवार को जीवन देता था। हर सुबह उस कुएँ पर चिड़ियों का झुंड उतरता, नहाता, फुदकता, और फिर उड़ जाता।
इनमें सबसे प्यारी लगती थी गौरेया। वो छोटी सी चिड़िया जो हमारे घर की साथी जैसी थी। कभी आँगन में, कभी दीवार की दरार में, तो कभी खपरैल के नीचे अपना घोंसला बना लेती थी। उसका “चूं-चूं” किसी संगीत की तरह पूरे घर को जीवंत बना देता था।
सालों बाद गाँव में पक्के घर बनने लगे। हमारा खपरैल वाला घर भी सीमेंट की छत से ढँक गया। लगा कि अब चिड़ियाँ नहीं आएँगी, लेकिन कुछ समय बाद देखा कि उसी छत की फॉल सीलिंग में गौरेया ने फिर घोंसला बना लिया। मानो उसने कह दिया हो – “तुम्हारी दीवारें बदल सकती हैं, पर मेरा हक़ नहीं।”

लेकिन क्या इक्कीसवीं सदी में ये दृश्य अब भी संभव है?
जब मैं शहर आया, तो लगा कि गाँव की वो हरियाली, वो जीवन की लय अब कहीं पीछे छूट गई है। यहाँ ऊँची-ऊँची इमारतें हैं, काँच की खिड़कियाँ हैं, पर हवा में मिट्टी की खुशबू नहीं। पेड़ अब गिने-चुने हैं, और चिड़ियाँ तो जैसे गायब हो गई हैं।
छत्तीसगढ़ में पेड़ों की कटाई की बातें अब खबरों में दिखती हैं—हंसदेव के जंगल, सरगुजा, रायगढ़, बस्तर- हर जगह विकास के नाम पर हरियाली का गला घोंटा जा रहा है। आंदोलन हुए, धरने हुए, लेकिन मशीनों के शोर में चिड़ियों की “चूं-चूं” दबती चली गई। कभी सितंबर के पहले हफ़्ते तक बारिश थम जाती थी, अब अक्टूबर के बीच तक बादल बरस रहे हैं। मौसम भी मानो अपनी दिशा भूल गया है।
एक दिन, अपने शहर के छोटे से घर की खिड़की के पास मैंने कुछ पत्ते और घास रखे देखा। कुछ दिनों बाद देखा कि वहाँ चिड़ियों का एक झुंड आने लगा। वे डालियाँ लातीं, तिनके जोड़तीं, और देखते ही देखते 8–10 छोटे-छोटे घोंसले बन गए। शुरू में सोचा—“घर गंदा हो जाएगा।”
लेकिन जब सुबह उठकर उनकी चहचहाहट सुनी, तो लगा जैसे शहर की भीड़ के बीच गाँव लौट आया हो या मेरे गाँव की गौरेला में शहर में मुझे ढूंड लिया हो।
धीरे-धीरे समझ आया कि इन चिड़ियों ने सिर्फ खिड़की नहीं, मेरे भीतर की निस्तब्धता में भी एक घर बना लिया है। जब वे उड़तीं, तो उनके साथ मेरा मन भी हल्का हो जाता। अब एक साल से ज़्यादा समय हो गया है, वे यहीं रहती हैं। गर्मी, बरसात, ठंड—हर मौसम में उनका संगीत मेरे घर को भर देता है।
आज जब मैं टीवी, सोशल मीडिया या अख़बार में “क्लाइमेट चेंज” की बातें सुनता हूँ, तो मुझे वो चिड़ियाँ याद आती हैं। ये मौसम का बिगड़ना सिर्फ तापमान का नहीं, हमारे मन के संतुलन का भी प्रतीक है। हमने पेड़ काटे, नदियाँ दूषित कीं, खेतों को रासायनिक ज़हर से भर दिया- और अब हम शिकायत करते हैं कि मौसम साथ नहीं दे रहा।
सच तो ये है कि प्रकृति ने हमें छोड़ा नहीं, हमने उसे भुला दिया।
गाँव में माँ अब भी तुलसी में पानी चढ़ाती हैं। वो कहती हैं- “पेड़ भी सांस लेते हैं, जब उन्हें दुख होता है, तो बारिश बदल जाती है।” उस दिन मुझे उनकी बात का अर्थ समझ में आया।
इस तेज़ रफ़्तार शहरी जीवन में जहाँ हर चीज़ की कीमत है, वहाँ एक चीज़ अब भी मुफ्त है- प्रकृति की शांति, बस ज़रूरत है उसे अपने जीवन में थोड़ी जगह देने की।
अपने घर के कोने में अगर आप एक छोटा पौधा लगा दें, तो समझिए आपने एक सांस को बचा लिया।
अगर आप अपनी खिड़की में चिड़ियों के लिए थोड़ी जगह छोड़ दें, तो समझिए आपने संगीत को ज़िंदा रखा।
मेरे घर की खिड़की में अब भी वो चिड़ियों का झुंड रहता है। हर सुबह उनकी आवाज़ मुझे याद दिलाती है कि हम चाहे जितने आधुनिक हो जाएँ, ज़िंदगी की असली सुंदरता प्रकृति से जुड़ाव में ही है।
अगर हर व्यक्ति अपने घर में बस एक छोटा कोना पेड़-पौधों और चिड़ियों के लिए आरक्षित रखे, तो शायद हम क्लाइमेट चेंज के खिलाफ़ किसी आंदोलन की शुरुआत नहीं, बल्कि संवेदना की पुनर्स्थापना करेंगे।
क्योंकि परिवर्तन बड़े भाषणों से नहीं, छोटी आदतों से आता है।
और अगर हम सब मिलकर एक गिलहरी के बराबर भी योगदान दें, तो शायद आने वाली पीढ़ियाँ फिर से वो हरियाली, वो “चूं-चूं” और वो सुकून महसूस कर सकेंगी-
जो हमने अपने बचपन में खो दिया था।
“चिड़ियों का आँगन, एक उम्मीद का बीज”
“लेखक:एम बी बलवंत सिंह खन्ना”